- 7 Posts
- 2 Comments
नव सामंतवाद को परिभाषित करने के लिए आरक्षण जैसे मुद्दे को केंद्र में रखना शायद इसकी परिभाषा को संकुचित करने जैसा है। यहाँ लेखक नव सामंतवाद की ओर कम व आरक्षण को लेकर ज्यादा चिंतित प्रतीत होता दिख रहा है। आरक्षण से सम्बंधित सभी समस्याएं इसके राजनीतिकरण से जुडी हुई है व इसका उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से स्थापित व राजनीती के पुरोधा सवर्ण वर्ग को ही जाता है। सवर्ण वर्ग ने ही जाति – जनजाति के मतों के लिए उनके कुछ प्रतिनिधियों को अपने बराबर स्थान दिया। यहाँ से वे लोग अपने अधिकारों को जानने लग गए व अपने सवैधानिक अधिकारों के लिए प्रयासरत हुए। प्रयासों को आंशिक सफलता मिली और सवर्ण वर्ग इसे एकक्षत्र राज कहने लग गया। इसी परिपेक्ष में यदि सवर्ण वर्ग के प्रतिनिधित्व को देखा जाये तो उसे तो एकक्षत्र से भी बहुत ऊपर का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।
मैंने तो कभी नहीं सुना कि कोई समिति या नीतिगत निर्णयों में किसी ऐसे प्रशासक या जन प्रतिनिधि को कोई समुचित स्थान मिला हो, जबकि हमारे देश के संविधान निर्माता व अनेको समाज सुधारक इन्ही समूहों से आते थे। यदि इन वर्गों का प्रशासनिक सेवाओं में एकक्षत्र राज है तो कितने ही सचिव इन वर्गों से मंत्रालयों में अपनी सेवा दे रहे है। कितने ही मंत्री सरकारों में आरक्षण का कोटा पूरा करते नज़र आ रहे है। कितने ही शिक्षक सहायक प्रोफेसर से ऊपर गए है। शायद, इन सभी प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक होगा, तो आरक्षण की तुलना नव सामंतवाद से करना इन वर्गो के लोगो के साथ सरासर अन्याय होगा।
आज ही के एक अंग्रेजी दैनिक में सभी राजनैतिक पार्टियां चुनावों में आरक्षित सीटों के अलावा अन्य सीटों पर इन वर्गों के प्रतिनिधियों के खड़े होने पर सहमत नहीं है। इसका अभिप्राय ये है कि अभी इनमें लोकतंत्र में भागीदारी के लिए भी योग्यता नहीं है तो वे कहाँ से राज करने लग जायेंगे। जब सम्बंधित वर्ग के लोगो को आरक्षण की क्रियान्वति को लेकर कोई समस्या नहीं है, न ही सरकार ने इसे द्वंद का मुद्दा माना है, तो कुछ सामाजिक वर्गों का इस संविधानिक समरसता के लिए प्रयासरत पहल पर प्रश्नचिन्ह लगाना पूर्ण रूप से अनुचित लगता है।
Read Comments