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सामाजिक बंधनों का ताना बाना रिश्तों को जन्म देता है। ये रिश्ते समाज की एक चाही अनचाही सच्चाई होते है। प्रत्येक सामाजिक प्राणी को इन वास्तविकताओं को स्वीकार करना ही होता है। ये बंधन आपके जन्म से पहले ही, अपने अप्रत्यक्ष लेकिन प्रभावी हथियारों यथा रिश्तों के रूप में आपके स्वागत के लिए तैयार रहते है।
मेरे अनुसार भारतीय परिस्थिति में ये बंधन एक इंसान की स्वतंत्र सोच के विकास में एक प्रभावी गतिरोध होते है। हालांकि उसकी सोच के निर्माण में भी इनका ही महत्वपूर्ण योगदान होता है। परन्तु जब एक युवा अपने सपनों की एक दुनिया जिसमें वह वो सभी करना चाहता है जो उसे कभी प्रेरित करता था। लेकिन बंधनों के बंधन उसे कभी जिम्मेदारी का अहसास दिलाते है, तो कभी सामाजिक प्रतिष्ठा के परदे से आपके प्रयोजन में बाधा खड़ी करते है। लगातार इसी चक्र के पुनरावर्तन से एक व्यक्तिगत, जो कुछ अलग या अपने लिए करना चाहता था ,समयांतराल में वो उन सभी प्रारम्भिक उद्देश्यों को पारिवारिक जिम्मेदारिओं के लिए बलिदान कर देता है।
उपरोक्त बाधाओं पर पार पाकर जो अपने उद्देश्यों में सफल हो जाते हैं, वो ही महापुरुष कहलाते हैं। परन्तु महापुरुष तो कम ही पैदा होते हैं , हम तो पुरुषों की बात कर रहे हैं, जो परिवार का भी पालन करता है साथ २ नौकरी भी करता है और कुछ २ अपने शौक भी पूरे करता है। अब शायद आप समझ रहे होंगे की कौन ज्यादा कार्यशील है, कौन अधिक प्रयत्नशील है, तो हम उसे महापुरुष क्यों नहीं कहते ? क्यों उसे आम आदमी के औपचारिक नाम से जाना जाता है ?
अब यह तो सच है कि हम आम को खास नहीं बना सकते परन्तु उसके लिए रिश्तों का सम्मान कर सकते है। साथ ही हर उस महापुरुष को भी अपने रिश्तों की जड़ों को सदैव हरा रखने का प्रयास करते रहना चाहिये, क्या पता उसे भी मोदी जी तरह प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल जाये और वह और अधिक महान हो जाये। क्योँकि मोदी जी ने भी यहाँ आकर अपनी पत्नी को इसी रूप में पहचान प्रदान की थी।
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