भारतीय महाग्रंथ गीता में कहा गया है कि कर्म करो फल की अभिलाषा मत करो। परन्तु कोई भी व्यक्तिगत लम्बे समय तक बिना परिणामों के सिर्फ कर्म नहीं कर सकता। सभी बोलते हैं कि प्रतियोगिता के समय में सर्वोतम का ही चयन होता है और सर्वोतम सभी नहीं हो सकते। परन्तु परिणाम सभी को चाहिये। परीक्षा देने वाले से अधिक परिणामो की चिंता उम्मीदवार के माता पिता व अन्य रिश्तेदारों को होती है। यहाँ प्रतियोगी को परीक्षा सिर्फ परिणाम के लिए ही उत्तीर्ण नहीं करनी होती बल्कि रिश्तेदारों की अपेक्षाओं को पूर्ण करना भी उसके लिए दूसरी परीक्षा के समान ही होता है, जहाँ सिर्फ और सिर्फ सर्वोत्तम ही मान्य होता है।
माता पिता को सर्वोत्तम बेटा चाहिए, पत्नी को सर्वोत्तम पति चाहिए, बच्चों को सर्वोत्तम पिता चाहिए, भाई बहनों को सर्वोत्तम भाई चाहिए, बॉस को सर्वोतम कार्यकर्ता चाहिए तथा अन्य सभी संदर्भो में भी बेस्ट की ही अपेक्षा की जाती है। मुझे तो अब ये लगता है, यदि यहाँ स्वं श्री कृष्ण को फिर से गीता का प्रवचन देने के लिए कहा जाये तो वे भी अपने पूर्व कथनों को एक व्यक्तिगत के जीवन को सरल बनाने के लिए रूपांतरित करने में जरा भी संकोच नहीं करेंगे।
यदि आपने हाल ही में आई किताब “व्हाई नेशंस फेल” पढ़ी होगी तो सर्वोतम बनने की आकांक्षा व जनता के साथ-२ खुद की भी अपेक्षाएं न केवल एक राष्ट्र बल्कि उस राष्ट्र के नागरिकों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। खुद की अपेक्षाएं तो हम पूरा कर सकते है परन्तु अन्य लोगों की अपेक्षाओ पर खरा उतारना थोड़ा कठिन प्रतीत होता है। हालाँकि कुछ लोग जो परीक्षाएं टॉप करते है वो शायद अन्य की भी अपेक्षाओ को पूरा कर पाते हों। परन्तु प्रथम स्थान तो सिर्फ एक ही व्यक्तिगत के लिए होता है, तो बाकी जनसंख्या कैसे अपना गुजारा करती है, वो है समझौता करके।
अब, जब बहुमत को अपना जीवन बहुत से समझौतों के आधार पर गुजारना है तो यहाँ फेल होने का डर न केवल डराता है बल्कि सफल भी नहीं होने देता। इस प्रकार एक व्यक्तिगत जो कि असीम सम्भवनाओं का सागर है, सिर्फ एक आम आदमी के रूप में अपनी दुनियां में खुशियों को तलाशते हुए व इन्हें अपनों में बाटते हुए जीता चला जाता है।
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